Sunday, September 16, 2012

एक दर्द

चैनपुर, सहरसा जिला का एक गाँव जो सदा से अपने बुद्धिजीवियों, विद्वानों एवं पंडितों के लिए मशहूर रहा है, आज लगता है की यहाँ की शिक्षा व्यवस्था लगभग चरमरा गयी है. २०० से भी ज्यादा इंजीनियरों को पैदा करने वाला यह गाँव, सैकड़ों शिक्षकों का दंभ भरने वाला यह गाँव अचानक कैसे शिक्षा के मामले में एकदम उतार की  ओर जाने लगा है, यह समझ से परे है. जैसा की विदित है की शिक्षा हमारे जीवन का मूल आधार है एवं इसी के बलबूते इस गाँव ने अपना इतना नाम  किया है वहां की शिक्षा व्यवस्था ऐसे बिगड़ने लगेगी समझ में नहीं आती. जहाँ तक मेरा मानना है इसके मूल में ग्रामीणों की उदासीनता  ही है. पहले के  समय में गाँव के सभी बच्चे लगभग गाँव में शिक्षा प्राप्त करते थे, चाहे उनके अभिभावक गाँव से बाहर ही क्यों न हो. आज कल जो भी आजीविका के लिए गाँव से बाहर हैं उन सब के बच्चे अब बाहर ही रहते है. गाँव में केवल वे ही रह गए हैं जो बाहर नहीं जा प् रहे हैं.  यहाँ तक की जो गाँव के आस पास भी नौकरी कर रहे हैं वे भी अपने बच्चे को नजदीक के शहर में पढाते है. इस प्रकार गाँव में शिक्षण का वातावरण कैसा है, उन लोगों के चिंता का कारन कभी नहीं बनता है. रहे गाँव के वो लोग जो अपने बच्चे को बाहर  पढ़ाने में असमर्थ हैं, वो समझते हैं की हम क्या कर सकते हैं, जो नसीब में होगा वही होगा. पंचायत प्रतिनिधि भी उदासीन है. लगता है उन्हें कुछ लेना देना नहीं है इस मामले से. उन्हें तो केवल अपना स्वार्थ साधना है और यह स्वार्थ तभी साध सकता है जब आम लोग शिक्षा से दूर रहे. ऐसी स्थिति में आम जनता क्या करे? कहाँ जाए? क्या इसी तरह गाँव और देश के भविष्य को डूबने दिया जाय. क्या केवल अनिवासी चैन्पुरियों के दम पर ही हम दिखाते रहे की हम कितने प्रबुद्ध हैं?

अनिवासी चैन्पुरिये तो लगभग उदासीन है. वो कहते है अब इस गाँव का कुछ नहीं हो सकता है. ना हमलोग अब गाँव ज कर रह सकते है और न ही बच्चे. केवल पिकनिक मनाने के लिए साल में एक आध बार गाँव चले जाते हैं. बच्चे तो पता नहीं इसे अपना गाँव समझते भी हैं की नहीं. वो इसे बाबा का गाँव या नाना का गाँव समझते हैं. ऐसे में अनिवासी चैनपुर वाले से कुछ अपेक्षा करना लाजिमी नहीं होगा. फिर कौन करेगा, स्पष्ट है की गाँव के लोगों को ही आगे बढ़ना होगा.
अभी चैनपुर के स्कूलों में गाँव के ही ज्यादा शिक्षक हैं. एक आध को छोड़कर किसी को पढ़ने -पढ़ाने में रूचि नहीं है. पता नहीं ये अपने जिम्मेदारी से क्यों भाग रहे हैं. जिसके लिए उन्हें वेतन मिलता है उस एक काम को भी वे ठीक से नहीं करना चाहते है. येही स्थिति सभी स्कूलों की है. कुछ निजी विद्यालय भी चलते हैं. ये विद्यालय कम कोचिंग संस्था ज्यादा है. कहने के लिए तो ये बच्चों को गुणवत्ता भरी शिक्षा देना चाहते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है. एक तरफ बच्चे नियमित रूप से स्कूल नहीं जाते हैं, जिससे उनमे अनुशासन हीनता  आती है दूसरी और उन्हें स्कूल के महत्व का पता नहीं चलता है. यह सही है की हमारे सरकारी स्कूल अपने पूरी क्षमता से सही शिक्षा नै प्रदान कर पा रही है, लेकिन ग्रामीण का जो सहयोग और प्रतिबद्धता चाहिए वह भी नहीं है.
इन सब नकारात्मक बातों के बाबजूद एक चीज तो है जो हमें उत्साहित करती है वह है लड़कियों की शिक्षा के प्रति उत्साह और लड़कियों का झुकाव. यह एक सही लक्षण है. हमें अपने बेटियों एवं बहनों को इसके लिए लगातार प्रोत्साहित करना होगा. बिहार सरकार भी इस और अच्छा प्रयास कर रही है.
ग्रामीणों से यह अनुरोध है की वे इस और पर्याप्त ध्यान दें, क्योंकि उचित शिक्षा ही हमारा भविष्य का सही तरीके से निर्माण कर सकती है.
एक अनुरोध अनिवासी चैन्पुरियों से भी, कृपा कर अपने गाँव पर भी ध्यान दे. ये हमारी जननी है, इसका ख्याल हम नहीं रखेंगे तो कौन रखेगा. ऐसी कोई योजना बनाये जिससे गाँव की चहुंमुखी समृद्धि हो और इस तरह अपनी जननी के दूध और मिटटी का कर्ज कुछ हद तक मिटा सके. क्योंकि कर्ज मिटाना तो किसी के बस में नहीं है. हे अनिवासी चैनपुरवासी, अपनी मिटटी तुम्हे याद कर रही है. थोडा कष्ट तो होगा, क्योंकि यहाँ न तो पर्याप्त बिजली है, न ही और तमाम सुविधाएँ ही है.